जन्मदिन विशेष : लद्दाख के वीराने में उम्मीद बोने वाला नाम, सोनम वांगचुक और उनका आइस स्तूप

जन्मदिन विशेष : लद्दाख के वीराने में उम्मीद बोने वाला नाम, सोनम वांगचुक और उनका आइस स्तूप

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नई दिल्ली, 31 अगस्त (आईएएनएस)। लद्दाख, दुनिया का सबसे ऊंचा, ठंडा और वीरान बीहड़। दूर-दूर तक फैले सूखे, बेरंग पहाड़। माइनस 20 डिग्री की सिहरन पैदा करने वाली हवाएं और सालभर चमकता सूरज, लेकिन इन सबके बीच सबसे बड़ी चुनौती है पानी। सोचिए, जहां बर्फ हर ओर है, वहां भी पानी का संकट जीवन को सबसे ज्यादा डराता है।

इस कठिन भूगोल और जलवायु में जब जीवन संकट में था, तब एक उम्मीद की किरण बनी इंजीनियर सोनम वांगचुक की सोच। जब लद्दाख में सालभर में 100 मिलीमीटर के करीब ही बारिश होती है और जलवायु परिवर्तन के चलते यहां लगभग 50 फीसदी हिमनद खत्म हो चुके हैं, उस दौर में सोनम वांगचुक की दिमागी उपज ने बर्फीले पहाड़ बना दिए।

सोनम वांगचुक अपने एक वीडियो में कहते हैं, "लद्दाख जैसे इलाकों में पेड़ों और खेती के लिए पानी बारिश से नहीं, बल्कि पिघलते हुए ग्लेशियर से आता है। ये बर्फ सालों या कहें कि सैकड़ों सालों से जमा होती है, जहां से पानी बहता है, उन्हें ग्लेशियर कहते हैं।"

एक इंटरव्यू में वांगचुक ने कहा, "ज्यादातर लोग यह नहीं समझ पाते हैं कि किसानों के लिए पानी का संकट अप्रैल-मई महीने में रहता है। उसी समय पानी की जरूरत पड़ती है और तब ऊपर के ग्लेशियर इतने गर्म नहीं होते कि वह पिघल सकें।"

इन हालातों में उन्होंने न सिर्फ समस्या को समझा, बल्कि ऐसा अनोखा हल खोजा, जिसे दुनिया "कृत्रिम ग्लेशियर" या "आइस स्तूप" के नाम से जानती है। एक ऐसी जल भंडारण प्रणाली बनाई, जो लद्दाख के बंजर सपनों को फिर से सींच रही है।

1 सितंबर 1966 को जन्मे सोनम वांगचुक ने लद्दाख के लोगों के लिए कई आविष्कार किए, और वे भी बगैर मशीनी मदद के। उसी तरह वांगचुक ने सूखे की समस्या से जूझते लद्दाख में एक आर्टिफिशियल ग्लेशियर बनाकर जल धारा को प्रवाहित किया। सिर्फ ग्रेविटी यानी गुरुत्वाकर्षण का इस्तेमाल और दबाव का प्रेशर, यही सोनम वांगचुक की ताकत बने, जिसने "आइस स्तूप" को खड़ा किया।

आर्टिफिशिल ग्लेशियर की पूरी व्याख्या खुद सोनम वांगचुक करते हैं। वे एक वीडियो में कहते हैं, "वैसे तो पिछले 30 साल में एक इंसान ने इसे वैज्ञानिक तरीके से बनाना शुरू किया, जिनका नाम है पद्मश्री अबाब नोरफेल। इन्होंने ग्लेशियर से पिघलते पानी को बर्फ के रूप में जमाया और फिर गर्मियों में उसका इस्तेमाल किया गया।"

वांगचुक कहते हैं, "पहले समस्या यह थी कि ये जल्दी पिघल जाते थे और किसानों के काम नहीं आते थे। इन हालातों को देखते हुए हमने नोरफेल जी की समस्याओं को सुलझाने के लिए वर्टिकल ग्लेशियर बनाना शुरू किया। इसका नाम दिया गया "आइस स्तूप"।"

यह एक ऐसा तोड़ साबित हुआ, जो लद्दाख की सूखी धरती को सींचता है। वर्टिकल होने के कारण धूप आर्टिफिशियल ग्लेशियर को पिघला नहीं पाती है, क्योंकि इसका सरफेस एरिया कम होता है और वॉल्यूम ज्यादा। किसानों को वॉल्यूम चाहिए और सूरज को एरिया चाहिए, तो तोड़ के रूप में वांगचुक ने एरिया को कम कर दिया। इससे "आइस स्तूप" गर्मियों तक पिघलता नहीं है और बाद में यह किसानों के काम आता है।

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